Tuesday, June 30, 2020

Human

मेरे बचपन की बात है। एक बार हम सब बच्चे गीली मिट्टी के गोले बनाकर मेरे घर की दीवार पर फेंक कर चिपका रहे थे। उससे पूरी दीवार गंदी हो गयी थी, पर हम सबको बहुत मजा आ रहा था। इतने में मेरी दादाजी वहाँ आ गये। उन्होंने कड़क आवाज में हम सबको डाँटा तो सब बच्चे भाग गये और केवल मैं अकेला वहाँ रह गया। मुझे कभी अपने दादाजी से डर नहीं लगता था। वो मुझसे प्यार से बोले-"ये क्या हो रहा था?" तब हँसते हुए मैंने कहा-"हम लोग खेल रहे थे। सब मिट्टी के गोले बनाकर दीवार पर फेंक रहे तो मैं भी वैसा करने लगा। बड़ा मजा आ रहा था।" तब दादाजी समझाते हुए बोले-"सब लोग कुएँ में कूद जायेंगे तो तुम भी उनके पीछे कुँए में कूद जाओगे? ऐसा तो भेड़ें करती हैं। तुम भेड़ हो कि मनुष्य हो? भगवान ने अक्ल नहीं दी क्या तुम्हें? अब ये साफ कौन करेगा? बताओ।" दादा जी की बात सुनकर मैं लज्जित हो गया। दीवार को साफ करना मेरे बस की बात नहीं थी क्योंकि हमने वो गोले बहुत ऊपर तक फेंके थे। कोई बड़ा ही स्टूल पर खड़े होकर दीवार साफ कर सकता था। मुझसे कुछ कहते नहीं बना। तब दादाजी ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-"जरूरी नहीं की जो सब कर रहे हों वो सही हो। अपनी बुद्धि का उपयोग किया करो। भगवान ने तुम्हें भी अक्ल दी है।" यह सुनकर मैं दीवार के पास गया और जहाँ तक मेरे हाथ पहुँच सकते थे, वहाँ तक के सारे मिट्टी के गोले मैंने जमीन पर गिरा दिये। यह देखकर दादाजी खुश हो गये। मेरे दादाजी को ब्रह्मलीन हुए वर्षों हो गये, पर उनकी दी हुई यह एक सलाह शिक्षा बनकर मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मैंने कभी भी किसी बात की वास्तविकता जाने बिना उसे सच नहीं माना। उनका यह परामर्श मेरे जीवन के कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने में मेरा सहायक बना, विशेषकर जब मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था और सब मेरे विरुद्ध थे। इसके लिए मैं आज भी अपने दादाजी का हृदय से धन्यवाद करता हूँ।