Saturday, December 22, 2018

Life

जीवन 

जीवन एक रास्ते जैसा लगता है 
मैं चलता जाता हूँ राहगीर की तरह 
मंजिल कहाँ है कुछ पता नहीं 
रास्ते में भटक भी जाता हूँ कभी-कभी
हर मोड़ पर डर लगता है कि आगे क्या होगा 
रास्ता बहुत पथरीला है और मैं बहुत नाजुक 
दुर्घटनाओं से खुद को बचाते हुए घिसट रहा हूँ जैसे 
पर रास्ता है कि ख़त्म होने का नाम नहीं लेता 
कब तक और कहाँ तक चलते जाना है 
ना मुझे पता है और ना कोई बताता है
पर गिरते संभलते चला जा रहा हूँ 
उम्मीद में कि उस मंजिल पर सुकून होगा 
जिसका अभी तक कोई निशाँ भी नहीं मिला 
पर मैं और कर भी क्या सकता हूँ 
रास्तों पर रुका भी तो नहीं जा सकता 
रुको तो बेचैनी और बढ़ जाती है 
रास्ते जैसे धकेलने से लगते हैं मुझे
कभी शक होता है कि मैं चल रहा हूँ या रास्ते 
इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ खुद को समेटकर 
मैं बस चला जाता हूँ चाहे जैसे भी हो 
कि कभी तो ये सफ़र ख़त्म होगा मंजिल पर पहुँचकर 
क्यों कि ये जीवन एक रास्ता बन चुका है मेरे लिए 
जिस पर मैं बस चलता जा रहा हूँ।  

Friday, December 14, 2018

Intellect

बुद्धि

राकेश को अपनी बुद्धिमानी और अपने भाग्य पर बड़ा अभिमान था। मोहल्ले में उससे ज्यादा पढ़ा-लिखा कोई नहीं था, इसलिए लोगों के सामने अपनी हेकड़ी दिखाने का कोई मौका वो छोड़ता ना था। मोहल्ले के सबसे धनी परिवार का होने का अभिमान तो उसे था ही, तिस पर उसकी सरकारी नौकरी भी लग गयी थी। शादी भी अच्छे घर में हो गयी थी और दो बेटे भी हो गए। बस, जब कभी भी उसे चार लोगों के सामने बोलने का मौका मिलता, वो स्वयं को श्रेष्ठ और बाकियों को अपने से कमतर जरूर बताता। सबको उसकी ये आदत बुरी लगती थी, पर कोई उससे कुछ नहीं कहता था। सब हंसी में टाल जाते थे।

रविवार का दिन था। राकेश के घर कुछ पड़ोसी बैठे हुए थे। सब चाय पी रहे थे। राकेश सबको बड़ा मगन होकर बता रहा था कि उसके दोनों बेटे मोहल्ले के बाकी बच्चों से कितने समझदार हैं और वो कैसे उनको अच्छी-अच्छी बातें सिखाता है कि इतने में राकेश की पड़ोसन सुशीला जी उसके दोनों बेटों को लेकर आ गयीं। दोनों तौलिए लपेटे हुए थे जैसे अभी नहाया हो। उनको देखकर सब चौंक गए। "क्या हुआ चाची ? ये दोनों नहाये हुए से क्यों लग रहे हैं ? इनके कपड़े कहाँ गए ? - राकेश ने हैरानी से देखते हुए पूछा। "क्या बताऊँ बेटा। मिट्टी का तेल डाल लिया था तेरे दोनों लाड़लों ने अपने सिरों में। दोनों को सर्फ से नहलाया है"  - सुशीला जी बोलीं। "क्या ?" - सबके मुँह से जैसे ये शब्द एक साथ निकल गया। राकेश तो उत्तेजना में उठ कर खड़ा हो गया। "पर ये दोनों तो घर से नहा-धोकर ही निकले थे खेलने के लिए। इन्हें मिटटी का तेल कहाँ मिल गया ?" - राकेश ने सुशीला जी से पूछा। "ये मेरे घर के आँगन में खेल रहे थे। मैंने स्टोव में भरने के लिए मिटटी के तेल की कुप्पी निकाली थी। उसमे थोड़ा सा तेल बचा था। फिर बहू ने आवाज दी तो मैं अंदर चली गयी। थोड़ी देर बाद इनके रोने की आवाज सुनकर मैं और बहू दौड़कर बाहर आये। देखा तो दोनों रो रहे थे और दोनों के सिर और कपड़े मिटटी के तेल में भीगे थे। मैंने और बहू ने तुरंत इनको पकड़कर सर्फ से सिर धुलाकर नहला दिया। दोनों के कपड़े धुलने के लिए सर्फ में भिगोकर रख दिए हैं एक बाल्टी में" - सुशीला जी ने कहा। "वो तो ठीक है चाची पर ये मिटटी के तेल में भीग कैसे गए ? - राकेश ने दोनों बेटों के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा। "तेरे बड़े लाड़ले ने बताया कि उसने मिट्टी का तेल खुद अपने और अपने छोटे भाई के सिर में लगाया था। कह रहा था कि पापा ने कहा कि सिर में तेल डालने से दिमाग ठंडा रहता है और बाल काले रहते हैं" - सुशीला जी ने ये बात कुछ तंज सा मारने के अंदाज में कही। "क्या ?" - राकेश को जैसे सुशीला जी की बात पर विश्वास न हुआ हो -"पर मैंने कब कहा था की मिट्टी का तेल सिर में डालते हैं ? क्यों ? - राकेश ने कुछ गुस्से से देखते हुए अपने दोनों बेटों की तरफ देखा।

राकेश का बड़ा बेटा मोहन बड़ी मासूमियत से डरते हुए बोला - "पापा, पापा, उस दिन आप जब ऑफिस के लिए तैयार हो रहे थे, तो आपने हम दोनों के सिर में उस शीशी से तेल डाल दिया था और फिर कंघी की थी। आपने ही तो कहा था कि सिर में तेल लगाने से दिमाग ठंडा रहता है, बाल काले रहते हैं और आँखों की ज्योति बनी रहती है। इसलिए मैंने दादी के यहाँ रखा तेल अपने और छोटू के सर में लगा लिया। पर उससे हमारी आँखों में जलन होने लगी। तब दादी और चाची ने हमको नहला दिया।" सब उसकी बात सुनकर हैरान रह गए। कुछ को हँसी भी आ गयी। पर राकेश को गुस्सा आ गया। उसने सोहन से ऊँची आवाज में कहा - "पर मैंने मिट्टी का तेल कब कहा था। बालों में लगाने वाला तेल दूसरा होता है। अकल है कि नहीं तेरे पास।" राकेश की डाँट सुनकर मोहन जाकर सुशीला जी से लिपट गया। उसे प्यार से पुचकारते हुए सुशीला जी ने राकेश से कहा - "उसे क्यों डाँट रहे हो। नौ साल का बच्चा ही तो है। तुमने उसे अधूरी बात बताई। ये भी तो बताना था कि कौन-कौन से तेल सिर में लगाते हैं। उसने तो अपनी बुद्धि के हिसाब से काम किया। तुम्हारे घर में भी तो स्टोव है। क्या तुमने उन्हें कभी बताया नहीं की मिट्टी का तेल स्टोव में डालते हैं और इसे कभी लगाते नहीं।" राकेश को जैसे साँप सूंघ गया। झेंपते हुए उसने ना में सिर हिलाया। "बच्चों में अकल होती ही कितनी है। उन्हें कभी अधूरी बात नहीं बतानी चाहिए। खेल-खेल में कुछ भी कर बैठते हैं। थोड़ी सी गलती तो मेरी भी है। इन्हें अकेले मिट्टी के तेल और स्टोव के पास नहीं छोड़ना था। भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना नहीं हुई" - सुशीला जी बोलीं। "नहीं चाची, इसमें ज्यादा गलती मेरी है। मुझे इन्हें अधूरी बात नहीं बतानी चाहिये थी। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने इन्हें तुरंत नहला दिया। मैं खुद को कुछ ज्यादा ही बुद्धिमान समझने लगा था। अब मैं हमेशा इस बात का ध्यान रखूँगा। मुझे अपनी गलती समझ में आ गयी।" - राकेश ने कृतज्ञ भाव से सुशीला जी की तरफ देखते हुए कहा। सुशीला जी ने गंभीर भाव से मुस्कुराते हुए कहा -"कोई बात नहीं बेटा। इन्हें कपड़े पहना दो।" राकेश ने झुककर दोनों बेटों को गले से लगा लिया। 

Wednesday, December 5, 2018

Betrayal of Trust

विश्वासघात

हर दिन की तरह आज भी शीला जी अपनी ड्यूटी पर समय से आ गयीं थीं। पर आज उनके चेहरे पर वो उत्साह और ख़ुशी नहीं थे जो रोज रहते थे। वो खुश दिखने की कोशिश तो कर रहीं थीं पर वो उनसे हो नहीं पा रहा था। स्टॉफ रूम में आकर सबको नमस्ते करने के बाद चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गयीं। सब उनसे बात करना चाहते थे पर शुरुआत कैसे करें, इसको लेकर सब दुविधा में थे। स्टॉफ रूम में घुटन भरा सन्नाटा था। शीला जी माहौल को भाँप बोलीं - "क्या आप सभी ने अपनी-अपनी कक्षा के बच्चों से परीक्षा-फॉर्म इकट्ठे कर लिए हैं?" केवल सुरेश को छोड़कर बाकि सबने हाँ में सर हिलाया। "मेरी कक्षा के कुछ बच्चे अपने माता-पिता के हस्ताक्षर फॉर्म पर नहीं करा पाए हैं। उम्मीद है कि आज वो दस्तखत कराकर फॉर्म ले आयेंगे। मैं चैक करके लंच तक आपको बताता हूँ।" - सुरेश ने कहा। "ठीक है आप सब कल तक सारे फॉर्म इकठ्ठा कर लीजिये। जिनके फॉर्म कम्प्लीट हैं, वो मेरी टेबल पर रख दें।" - शीला जी ने कहा। एक-एक करके सारे शिक्षक शीला की टेबल पर फॉर्म के बंडल रखकर स्टॉफ रूम से बाहर जाने लगे। साधना ने जान-बूझकर सबको अपने से आगे जाने दिया। वो शीला से अकेले में बात करना चाहती थी।

सबके स्टॉफ रूम से बाहर निकल जाने के बाद साधना ने शीला की टेबल पर फॉर्म का बंडल रखते हुए धीमी आवाज में कहा - "कैसी हो?" शीला ने कोई जवाब नहीं दिया। "मैं जानती हूँ कि जो हो चुका है उसे भुला पाना इतना आसान नहीं है, पर तुम्हे खुद को संभालना होगा।" - शीला के बगल में एक कुर्सी खींचकर उस पर बैठते हुए साधना बोली। शीला जी की आँखों से आँसुओ की हलकी सी धार बह निकली। "मुझे अब भी विश्वास नहीं होता की मीनू ने मेरे साथ ऐसा धोखा किया।" - दुःख भरी आवाज में शीला ने कहा - "किस चीज की कमी होने दी मैंने उसे ? हमेशा इस बात का ध्यान रखा की उसे वो सब तक़लीफ़ें न सहनी पड़ें जो मैंने सही थीं। कितने सपने देखे थे उसके लिए। उसे सब खत्म कर दिया। क्या जरुरत थी उसे ऐसा करने की ? अभी उसकी उम्र ही क्या है ? कहीं भी मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा इस लड़की ने मुझे।" - ये कहते हुए शीला जी की आँखों से आँसू और तेजी से निकलने लगे। उनके कंधे पर हाथ रखते हुए साधना ने कहा - "खुद को सम्भालो शीला। तुम इस तरह से हिम्मत हारोगी तो शर्मा जी का क्या होगा ? तुम्हें हिम्मत रखनी होगी।" अपने आँसू पोंछते हुए शीला जी ने कहा - "कैसे रखूँ हिम्मत ? मैंने हमेशा सभी छात्रों को अपने माता-पिता की बात मानने की शिक्षा दी, सबको हमेशा परिवार का महत्व समझाया, अपने रिश्तेदारों के परिवारों को टूटने से बचाया, और उसकी ये सजा मुझे मेरी ही बेटी ने दी कि पढाई-लिखाई करने की उम्र में भाग के शादी कर ली।" - ये कहके शीला जी फिर से रोने लगीं। "इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है शीला। आज-कल का माहौल ही ख़राब है। ये टीवी और फिल्में, सब बच्चों को बिगाड़ रहे हैं। उस पर भी ये इंटरनेट और मोबाईल और आ गए हैं। बच्चों को समझ नहीं होती कि उन्हें किस उम्र में क्या करना चाहिए। बहक जाते हैं  वो। माँ-बाप भी क्या करें। हमें फुर्सत नहीं मिलती अपने कामों से।" - साधना ने शीला जी को सांत्वना देते हुए कहा। "माँ-बाप दिन-रात से काम करने में लगे रहते हैं बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए। आखिर हम किसके लिए इतनी मेहनत करते हैं ? कितने सपने देखे थे मैंने मीनू की शादी की लिए। और वो अपने ही घर में चोरी करके भाग गयी।" - शीला जी ने रुँधे गले से कहा। "क्या ? चोरी ?" - साधना ने बड़े ही अविश्वास और आश्चर्य से शीला की तरफ देखा। "हाँ, मेरे सारे जेवर चुराकर ले गयी मीनू। वो जेवर भी ले गयी जो मैंने उसके लिए बनवाये थे।" - ये कहते हुए शीला जी की आँखों से लगातार आँसुओं की धार बह रही थी। "मुझे विश्वास नहीं होता। ये तुम्हें कब पता चला।" - साधना ने कहा। "कल उसे फ़ोन लगाया था। ढंग से बात तक नहीं की उसने। ये जरूर बताया की वो अपना हिस्सा लेकर गयी है। उसे अपने किये का कोई पछतावा नहीं है। मुझे यकीन नहीं होता उसकी इस बेशर्मी पर। - शीला जी ने रोते हुए कहा। "क्या मीनू ने कभी तुझसे जिक्र किया था कि वो किसी को पसंद करती है ? ये सब अचानक से तो नहीं हो सकता।" - साधना ने गंभीर मुखमुद्रा में कहा। "मुझे तो खुद कुछ समझ में नहीं आता" - शीला जी ने अपने आँसू पोंछते हुए खुद को थोड़ा संयत करके कहा - "मुझसे से तो हमेशा पढ़ाई की ही बातें किया करती थी। जब उसने जो माँगा, मैंने दिया। कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, गाड़ी, पैसे, कभी किसी चीज के लिए उसे मना नहीं किया। पता नहीं कब उसकी दोस्ती उससे सात साल बड़े इस किराने की दुकान वाले राकेश से हो गयी। घर से पिकनिक पर जाने की कहकर निकली थी। रात को मुझे फ़ोन करके बोली कि उसने राकेश से शादी कर ली है। पहले मुझे लगा की मजाक कर रही है मेरे साथ। पर बड़े भद्दे तरीके से उसने कहा कि अब वो बालिग हो गयी है और अपनी फैसले खुद ले सकती है। फिर अपनी शादी के फोटो भेज दिए उसने मेरे मोबाईल पर। - शीला जी की साँसे कुछ तेज चलने लगीं ये बात कहते हुए। साधना ने अपनी बोतल से निकल कर उनको गिलास में पानी दिया। शीला ने लगभग आधा गिलास पानी पी लिया। कुछ देर के लिए दोनों चुप बैठी रहीं।

फिर अचानक से शीला जी बोल पड़ीं - "उसके पापा को तो चक्कर आ गए थे उसकी शादी के फोटो देखकर। तबियत बहुत बिगड़ गयी थी उनकी।" - कहते हुए शीला जी जैसे अतीत में पहुँचकर उस दृश्य की कल्पना सी करने लगीं थीं। उनके हाथों पर हाथ रखते हुए साधना बोली - "अब कैसी तबियत है शर्मा जी की।" झुकी हुई नजरों से टेबल की तरफ देखते हुए शीला जी बोलीं - "क्या लगता है कैसे होंगे ? बात करते-करते रो पड़ते हैं। वो तो अच्छा हुआ की मैंने फोन करके रानू और शिशिर को बुला लिया था। अपनी बड़ी बेटी और दामाद के सामने वो ज्यादा नहीं रो सकते। आखिर वो माता-पिता जो बनने वाले हैं। उन दोनों ने ही उन्हें शांत करके रखा हुआ है।" अपने हाथों से शीला जी का चेहरा ऊपर उठाकर उनकी आँखों में देखकर बहुत ही गंभीर स्वर में साधना बोली - "तो अब तुम्हें भी खुद को संभालना होगा शर्मा जी और उस होने वाले बच्चे के लिए। मीनू ने तो नादानी कर दी। एक दिन उसे इसका पछतावा जरूर होगा। पर अब शर्मा जी और रानू को तुम्हारे साथ की पहले से ज्यादा जरुरत है। अच्छा हुआ जो तुम आज इतना रो लीं। निकल जाने दो इस दर्द को। मीनू की इस नादानी को एक बुरा सपना समझकर भूलने की कोशिश करो।" साधना की बात सुनकर शीला जी किसी सोच में खो गईं। फिर खुद को संभलकर बोलीं - "तुम ठीक कहती हो। पर मीनू ने जो जख्म दिया है वो इतनी आसानी से नहीं भरने वाला। अभी तीन महीने ही बीते थे फर्स्ट ईयर में उसका एडमिशन कराये। अभी तो हमने उसके लिए लड़का तलाशने के बारे में सोचा भी नहीं था। हमारा पूरा ध्यान तो उसकी पढ़ाई पर था अभी तो उसके लिए जेवर बनवाना चालू किया था मैंने। सोचा था हर साल कुछ पैसे बचाकर उसके लिए कुछ जेवर खरीदती जाऊंगी। मुझे नहीं पता चला कि मेरी छोटी बेटी कब इतनी बड़ी हो गयी कि केवल अठारह साल और दो महीने की उम्र में उसने भाग कर शादी कर ली। घर के सारे जेवर चुरा लिए और कहती है की मैं अपना हिस्सा लेकर गयी हूँ।" - ये कहते हुए शीला जी एक बार फिर रो पड़ीं। "बस करो अब ! बहुत रो लिया तुमने" - शीला जी आँसू पोंछते हुए साधना ने कहा - मुझे पता है कि इस सब को भूलना इतना आसान नहीं होगा। पर तुम्हे अपने लिए भी और अपनों के लिए भी खुद को संभालना ही होगा। भगवान पर भरोसा रखो। मीनू एक दिन अपनी गलती पर जरूर पछ्तायेगी।" सिसकी सी भरते हुए शीला जी ने कहा - "अब उसका जो भी हो। हमने फैसला कर लिया है। अब हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। अब हम कभी उससे बात नहीं करेंगे और ना उसे अपने घर की चौखट पर कदम रखने देंगे।" - ये कहते हुए शीला जी के चेहरे पर पहली बार दुःख के साथ-साथ क्रोध के भी भाव आ गए। "फिर वही बात। उस पर गुस्सा करके भी तुम अपना ही खून जला रही हो। भविष्य में क्या होगा ये किसी ने नहीं देखा। पर अभी हाल के लिए ये ठीक है की शर्मा जी और रानू की हालत देखते हुए तुम लोग मीनू से बातचीत ना करो।" - साधना ने कहा। "तुम ठीक कहती हो। शायद हमारे ज्यादा लाड़-प्यार का नतीजा हमें ऐसे मिला। अब ऐसे भुला देंगे मीनू को कि जैसे वो कभी हमारी जिंदगी का हिस्सा थी ही नहीं। मैं हमेशा उन लोगों का मजाक उड़ाती थी जिनके बच्चे भाग कर शादी कर लेते थे। शायद भगवान ने उसकी सजा मुझे दी है। बद्दुआएं दी होंगी उन सबने मुझे। बड़ा घमंड था मुझे की मैंने अपनी दोनों बेटियों की बड़ी अच्छी परवरिश की है। ऊपर वाले ने मेरा सर नीचे झुका दिया आखिर। - शीला जी ने दुखी मन से कहा। "तुम भी न शीला। मीनू की नासमझी का दोष ना खुद को दो, ना भगवान को और ना किसी और को। जो हो चुका है, उसे भाग्य में लिखा कष्ट मानकर स्वीकार करो। और अब खुद को प्रताड़ित करना बंद करो बार-बार उन बातों का जिक्र करके। अभी कुछ दिनों की छुट्टी ले लो और ज्यादा वक़्त शर्मा जी और रानू के साथ बिताओ। उनको तुम्हारी जरुरत है।" - साधना ने शीला को समझाते हुए कहा। थोड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे को देखती रहीं। फिर शीला जी ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा - "ठीक है। एक काम करो, मेरे लिए छुट्टी की एप्लीकेशन लिख दो। मैं मेडिकल लीव ले लेती हों कुछ दिन की। ऐसी हालत में मुझे भी यहाँ अच्छा नहीं लग रहा है।" साधना ने सहमति में सिर हिलाते हुआ हल्का सा मुस्कुरा दिया।